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Kunthugiri Parichay

कुन्थुगिरि तीर्थक्षेत्र – इतिहास और जानकारी “बहता पानी और रमता जोगी—यही जीवन की सच्ची नीति है।” सन् 1967 में परम पूज्य आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी महाराज से मुनिदीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् गणधराचार्य कुन्थुसागर जी महाराज ने सम्पूर्ण भारत में विहार किया। वर्षों की साधनायात्रा के अनुभव से यह अनुभूति हुई कि वयोवृद्ध साधुओं के लिए संयमपालन और साधना करना दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है, विशेषतः बढ़ते शहरीकरण और ग्राम्य क्षेत्रों में श्रावकों की संख्या घटने के कारण। इसी भाव से पूज्य आचार्यश्री ने एक ऐसे स्थान की संकल्पना की जहाँ वयोवृद्ध साधु निःसंकोच, निःशब्द और निर्विघ्न साधना कर सकें। इस संकल्पना को मूर्तरूप देने में श्रद्धालु भक्तों और महादेवी पद्मावती माता की विशेष कृपा रही। केवल बारह वर्षों की अल्पावधि में यह तीर्थ अत्यंत तीव्र गति से विकसित हुआ और “कुन्थुगिरि” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस क्षेत्र की मूल प्रेरणा भगवान कुन्थुनाथ की प्रतिष्ठा थी, जिन्हें पर्वत की शिखा पर विराजमान करने का संकल्प लिया गया था। इसी कारण इस क्षेत्र को कुन्थुगिरि नाम प्रदान किया गया। यह तीर्थक्षेत्र विशेष रूप से वयोवृद्ध साधुओं के लिए आदर्श साधना-स्थली सिद्ध हो रहा है। इसके अतिरिक्त यह स्थान अध्ययनशील मुनियों के लिए भी उपयोगी है, क्योंकि यहाँ स्थित आगम मंदिर में लगभग 5,000–7,000 जैन ग्रंथ उपलब्ध हैं। अब तक के 12 वर्षों में अनेक मुनिराज, आर्यिकाएँ, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिकाएँ यहीं समाधिस्थ हुए हैं, जो इस स्थान की साधनामय ऊर्जा को सिद्ध करता है। यहाँ आने वाले साधुओं की व्यवस्था बिना किसी पंथभेद अथवा संघभेद के समान भाव से की जाती है।
Parasnath Jinalaya

पार्श्वप्रभु के गुण अगम, महिमा अपरम्पार। नमन करो उनको सभी, पाओ सौख्य अपार।। श्री त्रिभुवन चूड़ामणि, चिन्तामणि, कलिकुण्ड पार्श्वनाथ जिनालय में मूल-नायक मूर्ति के रूप में श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान है। एक सौ आठ फणों वाले इस विशालकाय मूर्ति का निर्माण श्यामवर्णीय पाषाण से हुआ है। प्रत्येक फण में

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Kunthugiri Parichay

कुन्थुगिरि तीर्थक्षेत्र – इतिहास और जानकारी “बहता पानी और रमता जोगी—यही जीवन की सच्ची नीति है।” सन् 1967 में परम पूज्य आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी महाराज से मुनिदीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् गणधराचार्य कुन्थुसागर जी महाराज ने सम्पूर्ण भारत में विहार किया। वर्षों की साधनायात्रा के अनुभव से यह अनुभूति हुई कि वयोवृद्ध

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Guru Parichay

उदयपुर जिले में बाठेड़ा नामक एक छोटा-सा गाँव है। इस गाँव में रेवाचन्द्र जी जैन रहा करते थे। वे पण्डितपद पर प्रतिष्ठित थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम सोहनीदेवी था। इस सर्वगुणसम्पन्न दम्पति के दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ थी। उनमें से एक पुत्र का नाम था-कन्हैयालाल। बालक कन्हैयालाल ने विक्रम

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